Posts

Showing posts from January, 2018

सागर जैसा व्यक्तित्व - कबीर दर्शन l

Image
सागर जैसा व्यक्तित्व - कबीर दर्शन  कबीरदेव का व्यक्तित्व अथाह सागर है । वे लोगों द्वारा अपने जीवन-काल में ही महान संत, सद्गुरु ही नहीं अलौकिक पुरुष के रूप में माने जाने लग गये थे । उत्तरी भारत ही नहीं, पूरे भारत में उनकी सुकीर्ति फैल गयी थी और आस-पास के देशों तक में उनके विचार पहुंच गये थे । जिसके माता-पिता का पता नहीं, जाति-बिरादर का ठिकाना नहीं, जो व्याकरण या किसी विषय में आचार्य एवं एम० ए० नहीं और जो भारत के महान धर्मावलंबिय ों-हिन्दू और मुसलमान तथा उनके धर्मनेता पण्डितों और मुल्लाओं को जीवन भर डांटाता-फटकारता रहा; उनकी त्रुटियों पर व्यंग्य करता रहा, उन्हें भला-बुरा कहता रहा, जो किसी की गलती पर कभी मुरव्वत करना नहीं जाना, जिसकी पैनी दृष्टि सबकी कमजोरियों को तत्काल देखकर उसकी जुबान हजार के बाजार में साफ-साफ कह देती थी; ऐसे कबीर में आखिर क्या आकर्षण है जो उन पर सब कुर्बान होते थे और आज भी उनको सब अपने दिल में बिठा रहे हैं । बात साफ है । कबिरदेव मानवता के महान आदर्श थे । सारी परम्पराओं से हटकर सत्य के उपासक थे । वे धर्म के नाम पर सत्य का मूल्य घटाना नहीं जानते थे । वे हिन्दू

फलित-ज्योतिष, शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न-विचार l

Image
फलित-ज्योतिष, शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न-विचार l गणित-ज्योतिष तो ठीक है जिससे सूर्य-चन्द्र ग्रहण आदि का विचार किया जाता है; परन्तु फलित-ज्योतिष भ्रांतिमूलक है और इससे लोगों में अंधविश्वास तथा कायरता बढ़ती है l किसी को कोई तकलीफ हुई तो सोखा भूत-बाधा बताते हैं और पंडित ग्रह-बाधा l शनि, रवि, मंगल आदि ग्रह हैं जो आकाश में हमसे लाखों-करोड़ों मील दूर रहते हैं और वे जड़-कणों के पिण्ड निरे जड़ हैं l उनका मनुष्यों पर कुपित होने तथा कृपा करने की बात सर्वथा नि रर्थक है l फिर पंडित लोग अपनी पूजा से ग्रहों को शांत करा देते हैं यह और निरर्थक है l सूर्य एक ग्रह है l जेठ की उसकी प्रचंड गर्मी को यदि पंडित अपनी पूजा से यदि शांत करा दें तो मान लिया जाये कि इनकी ग्रह-पूजा सफल होती है; परन्तु यह सब कुछ होने वाला नहीं l ये ग्रह भी अजीब हैं जो केवल हिन्दुओं से दुश्मनी रखते हैं और उन्हीं पर कुपित होते हैं, इसीलिए हिन्दुओं को ग्रह-शांति के लिए पंडितों से पूजा करानी पड़ती है और गैर-हिन्दू – मुसलमान, इसाई, यहूदी आदि का वे कुछ नहीं कर पाते l तभी तो इनको शांत कराने का झगड़ा उनके यहाँ नहीं है l वैसे पूरा संसार में स

तंत्र-मंत्र एवं भूत-प्रेत पर कबीर साहेब के विचार l

Image
भूत-प्रेत मंत्र-तंत्रादि का खंडन   यह भूत-प्रेत की कल्पना जो जंगली-युग की देन है, आज भी इससे मनुष्य का पिंड नहीं छूटा है l अशिक्षित और अल्प-शिक्षित ही नहीं चारों वेद, छहों शास्त्रों के विद्वान एवं अंग्रेजी आदि कई भाषाओं के पंडित भी उसी प्रकार नादान हैं l अंधविश्वास और भ्रांतिधारणा में पंडित और मूढ़ एक समान हैं l मिथ्या विश्वास में पड़े हुए अनपढ़ जितना नादान है, पढ़ा-लिखा भी उतना ही l अशिक्षित तो केवल   मिथ्याविश्वास को मन में जमाये रहता है; परन्तु शिक्षित अनेक युक्तियों तथा वैज्ञानिक हथकण्डों से मिथ्या धारणाओं को सत्य सिद्ध करता है l   भूत-प्रेत की योनि होती, तो उनके बाल बच्चे देखने में आते l उनके विवाह-शादी के रस्मोरिवाज तथा उनके व्यवहार-धंधा का भी पता लगता l उनके मरने पर उनकी लाशें भी देखने को मिलतीं, परन्तु यह सब कुछ नहीं दिखता l सद्गुरु कबीर कहते हैं “यह भूत का भ्रम सब लोगों को भटका रहा है l जो मिथ्या भूत-प्रेतों के मानने और पूजने वाले हुए वे सब अपने को अन्धविश्वास के गड्ढे में गिराये l भूत के न सूक्ष्म शरीर है न प्राण और न जीव l यह केवल कल्पना और भ्रांति का रूप है l करोड़ों-करोड़ो

भूला लोग कहैं घर मेरा l

Image
भूला लोग कहैं घर मेरा l जा घर में तू भूला डोले, सो घर नाहीं तेरा ll हाथी घोड़ा बैल बाहना, संग्रह कियो घनेरा l बस्ती मा से दियो खदेरा, जंगल कियो बसेरा ll गाँठी बाँधि खर्च नहिं पठयो, बहुरि न कियो फेरा l बीबी बाहर हरम महल में, बीच मियाँ का डेरा ll नौ मन सूत अरुझि नहिं सुरझै, जन्म जन्म उरझेरा l कहहिं कबीर सुनो हो सन्तो, यह पद का करो निबेरा ll वे लोग गहरी भूल में हैं जो यह कहते हैं कि यह घर मेरा है l ध्यान रखो, जिस घर में तुम भूले-भूले घूम रहे हो, जिसके अहंकार में तुम इतराते हो, वह तुम्हारा नहीं है l तुमने हाथी, घोड़े, बैल तथा अनेक वाहन इकट्ठे कर लिये l परंतु ध्यान रखो, एक दिन तुम बस्ती में खदेड़ दिये जाओगे और तुम्हारा स्थायी निवास जंगल में एवं श्मशान में हो जायेगा l जब तुम इस संसार से चले जाओगे, तब घर वालों को न कुछ भेज सकोगे और न वे तुम्हारे लिए भेज सकेंगे और न तुम स्वयं आकर कुछ ले या दे सकोगे l ऐसा है यह झूठा संबंध l तूने तो अपनी बीबी को बाहर निकाल दिया और घर में वेश्या को लाकर बसा लिया l अर्थात तूने मन से सद्वृत्ति को निकाल बाहर किया और उसमें दुष्प्रवृत्ति को लाकर टिका ल

स्वर्ग धरती पर है l

Image
यहाँ   ई  सम्मल  करिले, आगे   विषई   बाट । स्वर्ग बिसाहन सब चले, जहाँ बनियाँ न हाट ।। मानव-जीवन कर्म -भूमिका है । यहीं कर्मों का निर्माण तथा ज्ञान द्वारा कर्मों का अभाव भी होता है । मानव जीवन में ही विवेकबुद्धि है । यहीं धर्म का शंबल एवं अच्छे संस्कारों की पूंजी बनायी जा सकती है । मनुष्य-शरीर के बाद अन्य पशु आदि योनियों में तो केवल विषय-सेवन का ही रास्ता है । पशु-पक्षी आदि तो केवल पेट भरने की क्रिया  करते हैं और प्रजनन करते हैं । पेट और भोग के अलावा वहां कुछ संभव ही नहीं है । अतएव हमारे मानव जीवन की सफलता पेट भरने और बच्चा पैदा करने में नहीं है, किन्तु सत्संग, विवेक, परसेवा, स्वरूपविचार आदि में रमने में है । पौराणिक कल्पनाओं के आधार पर कुछ लोगों की यह धारणा है कि गंगादि नदियों में नहाकर, तीर्थों में निवास कर एवं मूर्तियों के दर्शन कर तथा अमुक मंत्र एवं नाम जपकर हम स्वर्ग-लाभ करेंगे। स्वर्ग में भगवान के पास पहुंचकर कृतार्थ हो जायेंगे । परन्तु यह सब बच्चों का मनोरंजन मात्र है । सद्गुरु कहते हैं "स्वर्ग बिसाहन सब चले, जहाँ बनियाँ न हाट।" वहां न तो बनिया है और न ब

कबीर कौन ?

Image
कबीर कौन ? जो सत्य का दर्शन कराये, और झूठ को न कभी सराहे ।...वह कबीर है । जो फकीर सा जीवन बिताये, और ताज को सर न झुकाये ।...वह कबीर है । जो आडम्बर को आग लगाये, और भटकों को राह दिखाये ।...वह कबीर है । जो तलवार से भी भय न खाये, और सब को खरी-खरी सुनाये।...वह कबीर है । जो शीश अपना कर में उठाये, और मृत्यु को भी देख मुस्कराये।...वह कबीर है । जो मानुष-मानुष का भेद मिटाये, और हर मानुष को एक बताये।...वह कबीर है । जो धर्मों की दीवार गिराये, और राम रहीम को एक बताये ।...वह कबीर है । जो ज्ञान की गंगा बहाये, और पाठ उल्टा न पढ़ाये ।...वह कबीर है । जो प्रेम का रस सर्वत्र बहाये, और कमियाँ खुद में बताये ।...वह कबीर है । जो परमात्मा से परिचय कराये, और जीव को मुक्ति दिलाये ।...वह कबीर है । जो जीवन का पारखी कहाये, और इन्सान में भगवान दिखाये ।...वह कबीर है । जो हर मानुष की खुशियों खातिर, खुद चिंता में कभी सो न पाये ।...वह कबीर है । जो जगत के सारे भरम मिटाये, और माया-मोह से हमें बचाये ।...वह कबीर है । जो खुद शिक्षा तो कबहुँ न पाये, पर दुनिया भर को पाठ पढ़ाये ।...वह कबीर है । जो अपने को अनप

मेरो मन कब भजिहो सतनाम l

Image
सो मोरे मन, कब भजिहो सतनाम ll बालापन सब खेल गमायो, ज्वानी में व्यापो काम l बृद्ध भये तन काँपन लागे, लटकन लागो चाम ll १ ll लाठी टेकि चलत मारग में, सह्वो जात नहिं घाम l कानन बहिर नयन नहिं सूझे, दाँत भये बेकाम ll २ ll घर की नारि विमुख होय बैठी, पुत्र करत बदनाम l बरबरात है बिरथा बूढ़ा, अटपट आठो जाम ll ३ ll खटिया से भुइं पर कर दैहैं, छूटि जैहैं धन धाम l कहैं कबीर काह तब करिहो, परिहैं यम से काम ll ४ ll भावार्थ - हे मन ! सत्य नाम का भजन कब करोगे ! पूरा बालपन खेलने में समाप्त हो जाता है, जवानी में काम-वासना के वश रहता है, बुढ़ापा में शरीर के अंग कांपने लगते हैं और चाम ढीला होकर लटक जाता है l वह लाठी के सहारे मार्ग चलता है और उससे धूप सहा नहीं जाता l कान बहरे हो जाते हैं, नेत्र ज्योतिहीन हो जाते हैं और दांत उखड़ जाते हैं l जो रहते हैं वे भी निरर्थक हो जाते हैं l बुढ़ापा में घर में रहने वाली पत्नी भी विरोधी बनकर बैठ जाती है l पुत्र बदनाम करता है कि यह बूढ़ा आठों पहर निरर्थक ही बकता रहता है l धीरे-धीरे कहिए या तीव्र गति से कहिए, मौत का दिन आ जाता है और मरणासन्न व्यक्ति को लोग खाट से उ

या तन धन की कौन बड़ाई l

Image
या तन धन की कौन बड़ाई, देखत नैनों में माटी मिलाई ll ll कंकर चुनि चुनि महल बनाया, आपन जाय जंगल बसाया ll १ ll हाड़ जरै जस लाकर झूरी, केश जरै जस घास की पूरी ll २ ll या तन धन कछु काम न आई, ताते नाम जपौ लौ लाई ll ३ ll कहैं कबीर सुनो मेरे मुनियाँ, आप मुये पीछे डूब गई दुनिया ll ४ ll भावार्थ – इस शरीर और धन की क्या विशेषता है, ये आंखों से देखते-देखते मिट्टी में मिल जाते हैं l आदमी कंकर-पत्थर चुन-चुन कर भव्य भवन खड़ा करता है l और थोड़े दिनों में उसे छोड़कर खुद जंगल में, श्मशान में स्थायी घर बसाता है l उसकी हड्डी सूखी लकड़ी की तरह जल जाती है और बाल घास के गट्ठे की तरह l अतएव यह पक्का समझ लो कि जिनमें हमें अहंकार-ममकार है वे तन-धन अंत में काम नहीं देंगे l इसलिए लगन के सहित आत्माराम का भजन करो l कबीर साहेब अपने श्रोताओं को प्यार भरे वचन कहते हैं कि ऐ मेरे प्यारे बच्चों ! हमारे स्वयं के मर जाने पर हमारे लिए दुनिया मानो खो जायेगी l #कहत_कबीर https://www.facebook.com/SansarKeMahapurush

मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे l

Image
मोको कहाँ ढूंढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में ll ll ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकान्त निवास में l ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश में ll१ll ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं बरत उपास में l ना मैं क्रिया कर्म में रहता, नहीं योग संन्यास में ll२ll नहीं प्राण में नहीं पिंड में, न ब्रह्माण्ड आकाश में l ना मैं भृकुटी भँवर गुफा में, नहीं नाभि के पास में ll३ll खोजी होय तुरत मिल जाऊँ, एक पल की हि तलाश में l कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में ll४ll भावार्थ – आत्मा ही परमात्मा है, यह बोध हो जाने पर, मानो वह अपने आपसे पूछ रहा है कि हे बंदे ! तू मुझे बाहर कहां खोजता है ! मैं तो तेरे पास में हूँ l पास में कहना भी कहने का एक तरीका है l मैं स्वयं वह हूँ जिसे खोज रहा हूँ l ना मैं तीर्थ में हूं न मूर्ति में हूं, न एकांत निवास में हूं l न मैं मंदिर में हूं न मस्जिद में हूं, और न काशी तथा कैलाश में हूं l न मैं जप में हूं न तप में हूं और न व्रत तथा उपवास में हूं l न मैं क्रिया-कर्म में रहता हूं और न योग तथा सन्यास में रहता हूं l न मैं प्राण में हूँ न पिंड में हूं और न ब्रह्

या विधि मन को लगावै, मन को लगावे प्रभु पावै ll

Image
या विधि मन को लगावै, मन को लगावे प्रभु पावै ll जैसे नटवा चढ़त बांस पर, ढोलिया ढोल बजावै l अपना बोझ धरै शिर ऊपर, सुरति बांस पर लावै ll जैसे भुवंगम चरत वन बन ही में, ओस चाटने आवै l कबहुं चरै कबहूँ मनि चितवै, मनि तजि प्राण गंवावै ll जैसे कामिनी भरे कूप जल, कर छोड़े बतरावै l अपना रंग सखियन संग राचै, सुरति गगरि पर लावै ll जैसे सती चढ़ी सत ऊपर, अपनी काया जरावै l मातु पिता सब कुटुम तियागे, सुरति पिया पर लावै ll धूप दीप नैवेद्य अरगजा, ज्ञान की आरती लावै l कहैं कबीर सुनो भाई साधो, फेर जन्म नहिं पावै ll इस प्रकार अपने मन को एकाग्रता में लगाये तो उसकी आत्माराम-प्रभु में लीनता होगी l जैसे नट दो गड़े बांसों पर बंधी रस्सी पर चढकर उस पर चलता है और नाचता है और नीचे उसका साथी ढोल बजाकर उसकी तारीफ करता है l रस्सी पर चलता हुआ नट अपने सिर पर तीन घड़े रखकर नाचता है और अपना मन बांस पर बंधी हुई रस्सी पर रखता है l इसी तरह साधक अपना व्यवहारिक काम करते हुए साधना में लीन रह सकता है l लोक कहावत के अनुसार जिस प्रकार सांप वन में रात में अपनी मणि मुख से उगलकर जमीन पर गिरा देता है और उसके प्रकाश में

बुद्धि के सागर धूर्तों से सावधान !

Image
सायर बुद्धि बनाय के, बायें बिचक्षण चोर l सारी दुनियाँ जहंडे गई, कोई न लागा ठौर ll108ll जीवों के ज्ञानधन एवं मानवता की चोरी करने वाले कुपथगामी विद्वानों ने अपनी बुद्धि को समुद्रवत विशाल बनाकर एवं नाना भ्रमपूर्ण ग्रंथों को रचकर समाज का पतन किया है l इसी में पड़कर संसार के सारे लोगों के विवेक-विचार नष्ट हो गए हैं l कोई अपनी स्थिति को नहीं प्राप्त हुआ l हर समय में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो बुद्धि के सागर, प्रतिभा के धनी, विद्वान, चतुर, ज्ञान में पारगत एवं समाज को समझने में दक्ष होते हैं l परंतु वे स्वयं कुपथगामी होते हैं l वे विद्या-बुद्धि, धर्म एवं परमार्थ की आड़ में सांसारिक भोगों एवं ऐश्वर्यों को भोगने की इच्छा वाले होते हैं l इसलिए वे दूसरे के साथ छल करते हैं l वे मानो जनता के ज्ञानधन एवं मानवीय गुणों की चोरी करते हैं l वे समाज को गलत दिशानिर्देश करते हैं l वे अपने आप के विषय में प्रचारित करते हैं कि हम भगवान या भगवान के अवतार या पूर्व महापुरुषों के अवतार या ईश्वर के पैगंबर है l वे अपने आप को समाज में चमत्कारिक रूप में प्रचारित करते या करवाते हैं l चमत्कार, जो केवल एक छलावा है,

हमन है इश्क मस्ताना l

Image
हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या । रहें आजाद या जग में, हमें दुनिया से यारी क्या ।। जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते । हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्या ।। खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है । हमन गुरु ज्ञान आलिम हैं, हमन को नामदारी क्या ।। न पल बिछुड़े पिया हम से, न हम बिछुड़े पियारे से । हो ऐसी लव लगी हरदम, हमन को बेकरारी क्या ।। कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से । ये चलना राह नाजुक है, हमन शिर बोझ भारी क्या ।। हम आत्मज्ञान एवं आत्मस्थिति के प्रेम में मस्त हैं, फिर हमें सांसारिक चतुराई से क्या प्रयोजन ! आत्मलीन साधक दुनिया की चतुरता में नहीं पड़ता । हमारा यह दृढ़ ध्येय है कि हम संसार में सदैव स्वतंत्र रहें; हमारे मन में कहीं कोई बंधन न हो, फिर हमें दुनियादारी में मोह करने की क्या आवश्यकता ! किसी व्यक्ति एवं वस्तु में मोहब्बत करने का क्या प्रयोजन ! जिनको यह भ्रम है कि हम अपने परमात्मा से बिछुड़ गये हैं, वे सदैव दर-बदर भटकते फिरते हैं । वे काशी-काबा की खाक छानते फिरते हैं । किन्तु यहां स्थिति सर्वथा भिन्न है । हमें तो पक्का बोध है कि हमारा प्रियतम

परम प्रभु अपने ही उर पायो ।

Image
परम प्रभु अपने ही उर पायो l जुगन जुगन की मिटी कल्पना, सद्गुरु भेद बतायो ll जैसे कुंवरि कण्ठ मणि भूषण, जान्यो कहूँ गमायो l काहू सखी ने आय बतायो, मन को भरम नशायो ll ज्यों तिरिया स्वप्ने सुत खोयो, जानि कै जिय अकुलायो l जागि परी पलंगा पर पायो, न कहूँ गयो न आयो ll मिरगा पास बसे कस्तूरी, ढूँढत बन बन धायो l उलटि सुगन्ध नाभि की लीनी, स्थिर होय सकुचायो ll कहैं कबीर भई है वह गति, ज्यों गूँगे गुर खायो l ताका स्वाद कहै कहु कैसे, मन ही मन मुसकायो ll मैंने परम प्रभु को,  परमात्मा को अपने हृदय में ही पा लिया है l सद्गुरु ने जब यह रहस्य बताया कि जिसको तू खोजता है वह तू ही है, तब अनादिकाल की कल्पना और भरमना मिट गयी l       जैसे एक युवती के गले में मणियों की माला का आभूषण पड़ा था,  परंतु उसको भ्रम हो गया  कि  वह कहीं खो गया है l  इतने में उसकी एक सखी ने आकर बताया कि पगली!  तेरी मणि-माला  तो तेरे गले में ही पड़ी है l  फिर उस युवती के मन का भ्रम मिट गया और वह प्रसन्न हो गयी l           जैसे एक स्त्री सपना देखती है कि मेरा शिशु खो गया है l  पुत्र-वियोग की पीड़ा में वह बहुत व्याकुल हो गई है l  इ