या विधि मन को लगावै, मन को लगावे प्रभु पावै ll




या विधि मन को लगावै, मन को लगावे प्रभु पावै ll
जैसे नटवा चढ़त बांस पर, ढोलिया ढोल बजावै l
अपना बोझ धरै शिर ऊपर, सुरति बांस पर लावै ll
जैसे भुवंगम चरत वन बन ही में, ओस चाटने आवै l
कबहुं चरै कबहूँ मनि चितवै, मनि तजि प्राण गंवावै ll
जैसे कामिनी भरे कूप जल, कर छोड़े बतरावै l
अपना रंग सखियन संग राचै, सुरति गगरि पर लावै ll
जैसे सती चढ़ी सत ऊपर, अपनी काया जरावै l
मातु पिता सब कुटुम तियागे, सुरति पिया पर लावै ll
धूप दीप नैवेद्य अरगजा, ज्ञान की आरती लावै l
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, फेर जन्म नहिं पावै ll



इस प्रकार अपने मन को एकाग्रता में लगाये तो उसकी आत्माराम-प्रभु में लीनता होगी l जैसे नट दो गड़े बांसों पर बंधी रस्सी पर चढकर उस पर चलता है और नाचता है और नीचे उसका साथी ढोल बजाकर उसकी तारीफ करता है l रस्सी पर चलता हुआ नट अपने सिर पर तीन घड़े रखकर नाचता है और अपना मन बांस पर बंधी हुई रस्सी पर रखता है l इसी तरह साधक अपना व्यवहारिक काम करते हुए साधना में लीन रह सकता है l


लोक कहावत के अनुसार जिस प्रकार सांप वन में रात में अपनी मणि मुख से उगलकर जमीन पर गिरा देता है और उसके प्रकाश में अपना आहार खोजता है l उस समय वह कभी तो आहार खोजता है और कभी मणि को देखता है l
वह अपनी प्रिय मणि की रक्षा में अपनी जान देने के लिए तैयार रहता है l इसी प्रकार साधक अपना संसारी काम करते हुए अपनी आत्मस्थिति में लवलीन रह सकता है l


जिस प्रकार युवतियां तालाब या कुएं से पानी भरकर घड़े अपने सिर पर रख लेती है, और हाथ उससे हटाकर नाना भावभंगिमा से अपनी सखियों से बातचीत करती है और अपनी बात का भाव उन पर जमाती है, परंतु उनका मन अपने सिर पर रखे हुए घड़े पर रहता है l इसी प्रकार साधक शारीरिक निर्वाह-धंधा करते हुए अपने मन को आत्माराम में लगाए रख सकता है l

जिस प्रकार अज्ञानवश एक स्त्री अपने पति के वियोग में पीड़ित होकर उसकी लाश के साथ चिता पर चल जाती है l वह अपने माने गए माता, पिता तथा सारे कुटुंब का मोह त्यागकर मृत पति पर मन लगाकर जल मरती है l इसी प्रकार कोई विवेकी सबका मोह त्यागकर और संसार से निष्काम होकर आत्मस्थिति रूपी चिंरतन शांति में डूब सकता है l

कबीर साहेब कहते हैं कि हे संतो! सुनो, धूप, दीप, नैवैद्ध, अरगजा आदि अर्पित करना भक्ति-भाव के लक्षण हैं l भक्ति से चित्त शुद्ध होता है और जब साधक स्वरुपज्ञान में स्थिति रुपी आरती करता है तो उसका पुनः जन्म नहीं होता l स्वरूपस्थ साधक मुक्त हो जाता है l



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