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परम प्रभु अपने ही उर पायो ।

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परम प्रभु अपने ही उर पायो l जुगन जुगन की मिटी कल्पना, सद्गुरु भेद बतायो ll जैसे कुंवरि कण्ठ मणि भूषण, जान्यो कहूँ गमायो l काहू सखी ने आय बतायो, मन को भरम नशायो ll ज्यों तिरिया स्वप्ने सुत खोयो, जानि कै जिय अकुलायो l जागि परी पलंगा पर पायो, न कहूँ गयो न आयो ll मिरगा पास बसे कस्तूरी, ढूँढत बन बन धायो l उलटि सुगन्ध नाभि की लीनी, स्थिर होय सकुचायो ll कहैं कबीर भई है वह गति, ज्यों गूँगे गुर खायो l ताका स्वाद कहै कहु कैसे, मन ही मन मुसकायो ll मैंने परम प्रभु को,  परमात्मा को अपने हृदय में ही पा लिया है l सद्गुरु ने जब यह रहस्य बताया कि जिसको तू खोजता है वह तू ही है, तब अनादिकाल की कल्पना और भरमना मिट गयी l       जैसे एक युवती के गले में मणियों की माला का आभूषण पड़ा था,  परंतु उसको भ्रम हो गया  कि  वह कहीं खो गया है l  इतने में उसकी एक सखी ने आकर बताया कि पगली!  तेरी मणि-माला  तो तेरे गले में ही पड़ी है l  फिर उस युवती के मन का भ्रम मिट गया और वह प्रसन्न हो गयी l           जैसे एक स्त्री सपना देखती है कि मेरा शिशु खो गया है l  पुत्र-वियोग की पीड़ा में वह बहुत व्याकुल हो गई है l  इ