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कबीर साहेब के उपदेश

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    कबीर साहेब के उपदेश एक सार्वभौमिक, संकीर्ण, और आध्यात्मिकता की गहराईयों तक पहुंचने वाले हैं। उनके दोहे, भजन और वचन एक स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ मानवता की उच्चतम सिद्धियों का संक्षिप्त प्रतिनिधित्व करते हैं।   एकता का उपदेश: कबीर साहेब ने आध्यात्मिक एकता का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि सभी धर्मों की सच्चाई और भगवान की प्राप्ति के लिए यथासम्भाव प्रयास करो, क्योंकि भगवान सभी के हृदय में बसते हैं।   आत्म-ज्ञान की महत्वपूर्णता: कबीर साहेब ने मानव जीवन के उद्देश्य को समझाया और आत्म-ज्ञान के माध्यम से अपने सत्य की पहचान करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि आत्मा ब्रह्म से अद्वितीय है और हमें अपने आप की पहचान करनी चाहिए।   कर्म का महत्व: कबीर साहेब ने कर्म की महत्वपूर्णता को स्वीकार किया और यह सिखाया कि निष्कलंक कर्म ही व्यक्तिगत एवं सामाजिक उन्नति की कुंजी है।   भगवान के प्रति प्रेम: कबीर साहेब ने भगवान के प्रति उनके अतीत, धर्म, या जाति के आधार पर नहीं, बल्कि उनके प्रेम और भक्ति के आधार पर पहचाना।   दुःख का समाधान: उन्होंने दुःख के स्रोतों की गहराई को समझाया और यह सिखाया कि सांसारिक विक

कबीर अमृतवाणी 2

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                                               पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ । ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ ॥ भावार्थ - संसारिक लोग पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मर गए कोई भी पंडित (वास्तविक ज्ञान रखने वाला) नहीं हो सका। परंतु जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का एक ही अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढ़ता है) वही सच्चा ज्ञानी होता है। वही परम तत्त्व का सच्चा पारखी होता है। मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥ भावार्थ - मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है? जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥ भावार्थ - जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया। साँच बराबर तप नहीं, झूठ

कबीर अमृतवाणी

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कबीर अमृतवाणी  साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार l जग में होते साधु नहिं, जर मरता संसार ll सन्त जन वृक्ष हैं, सत्य ज्ञान का उनमें फल लगा है, उनके निर्णय शब्दों का विचार ही शीतल छाया है l संसार में यदि विवेकी सन्त न होते, तो संसारी कुकर्म में जल मरते ll साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं l धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधू नाहिं ll सन्त-जन भाव के भूखे होते हैं, धन के भूखे नहीं  होते l जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधु ही नहीं है ll साधु बड़े परमारथी, धन ज्यों बरसे आय l तपन बुझावैं और की, अपनों पारस लाय ll सन्त जन बड़े परमार्थी होते हैं, वे बादल की भांति संसार में मड़ला- मड़ला कर ज्ञान-मेह की बारिश करते हैं और सत्संग से दूसरे के मानसिक ताप को दूर करते हैं ll साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग l तपन बुझावै और की, दे दे अपनो रंग ll संतजन बड़े परोपकारी होते हैं, उनके विचार शीतल होते हैं l अपना ज्ञान-रंग चढ़ा-चढ़ाकर अन्य के तपन को शांत करते हैं ll सरवर तरवर संत जन, चौथा बरसे मेह l परमारथ के कारने, चारों धारी देह ll सरोवर, वृक्ष

"प्रेम ना बाड़ी उपजै, प्रेम ना हाट बिकाय ।

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"प्रेम ना बाड़ी उपजै, प्रेम ना हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै, शीश देय लै जाय।।" प्रेम ना घर की बाड़ी या खेत में होता है और ना ही किसी हाट-बाजार में बिकता है। राजा हो या प्रजा जिसे भी इसे पाने की इच्छा या चाहना हो वह शीश देकर अर्थात् झुक कर या विनम्रता को जीवन में धारण करके पा सकता है । कबीर साहेब मस्तमौला फक्कड़ संत शिरोमणि हैं। अपने अनुभव और आँखों देखी बात कहते हैं वो भी बिना लाग लपेट के जस का तस एकदम खरा खरा । प्रेम तो उनका चोलना है जिसे पहन कर वो नाचते हैं। अर्थात प्रेम से कभी अलग नहीं होते। प्रेम का रहस्य बताते हुए कहते हैं - प्रेम को संकीर्ण न रखें। प्रेम को किसी बाड़े में उपजाया नहीं जा सकता अर्थात प्रेम को किसी एक विषय वस्तु में नहीं बाँधा जा सकता। प्रेम तो निश्छल निर्मल और शुद्ध है। प्रेम में कुछ पाना नहीं है उलटा सबकुछ खो देना ही प्रेम है। प्रेम हाट बाज़ार में नहीं बिकता क्योंकि उसकी कीमत अनमोल है। आजतक इसे खरीदने वाला कोई नहीं मिला। लेकिन जिस किसी को इसे पाने या अनुभव करने की रुचि है फिर चाहे राजा या प्रजा जो कोई हो इसकी कीमत चुका कर ले जाए

दो दिन का मेहमान, मन तू नेकी कर ले रे ।

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मन  रे  तू नेकी कर ले, दो दिन के मेहमान ।  कहां से आया कहाँ जायेगा, तन छूटे मन कहां रहेगा । आखिर तुमको कौन कहेगा, गुरु बिन आतम ज्ञान ज्ञान ।। भाई भतीजा कुटुम कबीला, दो दिन का तन मन का मेला ।  अन्तकाल तो चला अकेला, तज माया मण्डान ।।  कौन है साचा साहब जाना, झूठा है यह सकल जहाना जहाना । कहाँ मुकाम और कहाँ ठिकाना, क्या बस्ती का नाम ।। रहट माल पनघट ज्यों फिरता, आता जाता भरता रीता ।  युगन युगन तू मरता जीता जीता, मत करना अभिमान ।। हिल मिल रहना दे के खाना,  नेकी बात सिखावत रहना । कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जपना सद्गुरु नाम ।। अरे मन ! तू भलाई का काम कर ले । याद रख, तू यहां दो दिन का मेहमान है । क्या तूने इसका विचार किया है कि तू कहां से आया है, आगे कहां जायेगा और शरीर छूटने पर तेरा मन कहां विश्राम पायेगा । वस्तुतः तूने सद्गुरु की शरण नहीं ली, तो उनके बिना तुझे कौन आत्मज्ञान देगा !  सच्चा स्वामी कौन है, क्या तूने इस बात को ठीक से समझा ? जो तुम्हें माया की नगरी मिली है, वह पूरी झूठी है । तुम्हारा स्थाई मुकाम कहां है? तुम कहां स्थिर होकर ठहरोगे? उस बस्ती

माया महा ठगिनी हम जानी ।

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माया महा ठगिनी हम जानी । त्रिगुणी फाँस लिये कर डोले, बोले मधुरे बानी ।। केशव के कमला ह्वै बैठी, शिव के भवन भवानी ।। पंडा के मूरति ह्वै बैठी, तीरथ हूँ में पानी ।। योगी के योगिन ह्वै बैठी, राजा के घर रानी । काहू के हीरा ह्वै बैठी, काहू के कौड़ी कानी ।। भक्ता के भक्तिनी ह्वै बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहहिं कबीर सुनो हो सन्तो, ई सब अकथ कहानी ।। भावार्थ  - मैंने समझ लिया है कि माया महा ठगिनी है । यह त्रिगुणात्मक फंदा लेकर घूमती है और मीठी-मीठी बातें करके जीवों को बांध लेती है । यह केशव के घर में कमला, शिव के घर में पार्वती तथा ब्रह्मा के घर में सरस्वती बन कर बैठी है । यह पंडा के घर में मूर्ति एवं तीर्थों में पानी बनकर लोगों को छलती है । यह साधु-संन्यासियों के आश्रमों में दासी बनकर उन्हें छलती है और राजा के घर में रानी बनकर छलती है । यह किसी के घर में हीरा बनकर तथा किसी के घर में फूटी कौड़ी बनकर उन्हें छलती है । यह भक्तों के घर में भक्तिन बनकर उन्हें बांधती है । कबीर साहेब कहते हैं कि हे संतों ! सुनो, माया की कहानी अकथनीय है । यह अनेक रूपों में होकर जीवों को बांधती है । अतः

बड़ा वही जिसकी बड़ी बुद्धि एवं बड़े संस्कार हैं ।

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कारे बड़े कुल ऊपजै, जोरे बड़ी बुधि नाहिं । जैसा फूल उजारिका, मिथ्या लगि झर जाहिं ।। यदि बड़ी बुद्धि नहीं है तो नहीं है तो बड़ी जाति में पैदा होने से क्या हुआ जैसे जनशून्य जंगल में फूल खिले और और व्यर्थ में झड़ गये, वैसे उत्तम मानव-जाति में जन्म लिया, परंतु आत्मकल्याण और जनकल्याण का कोई भी काम के बिना संसार से चला गया, तो उसका जन्म व्यर्थ गया । बड़ा कुल एवं उच्च कुल उच्च कुल एवं उच्च कुल मानव-कुल है । पूरे मानव का एक ही कुल एवं वंश है जो संसार में सर्वोच्च है । मानव के समान संसार में कोई जाति नहीं है । परंतु ऐसे उत्तम मानव-कुल में जन्म लेकर जीव ने क्या कमाया जबकि उसकी बुद्धि मानवीय गुणों से संपन्न एवं विवेकवती नहीं है ! बड़े कुल में जन्म लेने की शोभा तब है जब उसमें बड़ी बुद्धि हो ।        बड़ी बुद्धि का अर्थ है विचार एवं विवेक-प्रधान बुद्धि का होना । जिसमें बड़ी बुद्धि होती है वह अपने आपको बड़ा तथा दूसरे को छोटा नहीं मानता, किन्तु वह दूसरे सब का आदर करता है और स्वयं विनम्र रहता है । बड़ी बुद्धि वाला वह है जो अपने आप के प्रति संयमशील है और दूसरों की यथाशक्ति सेवा करता है । विन