कबीर अमृतवाणी
कबीर अमृतवाणी
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार l
जग में होते साधु नहिं, जर मरता संसार ll
जग में होते साधु नहिं, जर मरता संसार ll
सन्त जन वृक्ष हैं, सत्य ज्ञान का उनमें फल लगा है, उनके निर्णय शब्दों का विचार ही शीतल छाया है l संसार में यदि विवेकी सन्त न होते, तो संसारी कुकर्म में जल मरते ll
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं l
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधू नाहिं ll
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधू नाहिं ll
सन्त-जन भाव के भूखे होते हैं, धन के भूखे नहीं होते l जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधु ही नहीं है ll
साधु बड़े परमारथी, धन ज्यों बरसे आय l
तपन बुझावैं और की, अपनों पारस लाय ll
तपन बुझावैं और की, अपनों पारस लाय ll
सन्त जन बड़े परमार्थी होते हैं, वे बादल की भांति संसार में मड़ला- मड़ला कर ज्ञान-मेह की बारिश करते हैं और सत्संग से दूसरे के मानसिक ताप को दूर करते हैं ll
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग l
तपन बुझावै और की, दे दे अपनो रंग ll
तपन बुझावै और की, दे दे अपनो रंग ll
संतजन बड़े परोपकारी होते हैं, उनके विचार शीतल होते हैं l अपना ज्ञान-रंग चढ़ा-चढ़ाकर अन्य के तपन को शांत करते हैं ll
सरवर तरवर संत जन, चौथा बरसे मेह l
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ll
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ll
सरोवर, वृक्ष, सन्तजन एवं चौथा मेह का बरसना – ये चारों परोपकार के लिए ही प्रकट हैं (सरोवर, वृक्ष एवं बादल तो जड़ हैं l सन्तों की परोपकारता में किसी का पटतर नहीं हो सकता ) ll
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचवै नीर l
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर ll
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर ll
वृक्ष कभी फल नहीं खाते, नदी कभी जल नहीं पीती, इसी प्रकार परोपकार के लिए ही सन्तों ने साधु शरीर (वेष) धारण किया है ll
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