दो दिन का मेहमान, मन तू नेकी कर ले रे ।







मन  रे  तू नेकी कर ले, दो दिन के मेहमान । 
कहां से आया कहाँ जायेगा, तन छूटे मन कहां रहेगा ।
आखिर तुमको कौन कहेगा, गुरु बिन आतम ज्ञान ज्ञान ।।
भाई भतीजा कुटुम कबीला, दो दिन का तन मन का मेला । 
अन्तकाल तो चला अकेला, तज माया मण्डान ।।
 कौन है साचा साहब जाना, झूठा है यह सकल जहाना जहाना ।
कहाँ मुकाम और कहाँ ठिकाना, क्या बस्ती का नाम ।।
रहट माल पनघट ज्यों फिरता, आता जाता भरता रीता ।
 युगन युगन तू मरता जीता जीता, मत करना अभिमान ।।
हिल मिल रहना दे के खाना,  नेकी बात सिखावत रहना ।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जपना सद्गुरु नाम ।।



अरे मन ! तू भलाई का काम कर ले । याद रख, तू यहां दो दिन का मेहमान है । क्या तूने इसका विचार किया है कि तू कहां से आया है, आगे कहां जायेगा और शरीर छूटने पर तेरा मन कहां विश्राम पायेगा । वस्तुतः तूने सद्गुरु की शरण नहीं ली, तो उनके बिना तुझे कौन आत्मज्ञान देगा !

 सच्चा स्वामी कौन है, क्या तूने इस बात को ठीक से समझा ? जो तुम्हें माया की नगरी मिली है, वह पूरी झूठी है । तुम्हारा स्थाई मुकाम कहां है? तुम कहां स्थिर होकर ठहरोगे? उस बस्ती का नाम क्या है ? 

जिस प्रकार कुएं के पनघट पर रहंट की माला घूमती है जिसमें डिब्बे लगे रहते रहते हैं । वे आते-जाते और भरते तथा खाली होते रहते हैं, इसी प्रकार तू जन्म-मरण के रहंट में अनादि काल से घूम रहा है और संसार की माया को पाते-छोड़ते आ रहा है । इसलिए आज जो मिला है उसका अभिमान ना करना । अंत में इसका पता नहीं लगेगा कि कहां गया ।

सावधान ! जहां रहना सबसे हिलमिल कर रहना और अगले आदमी को देकर खाना । सामने मिले हुए सत्पात्रों को भलाई करने की सीख देते रहना । कबीर साहेब कहते हैं कि हे भाई संतो ! सुनो, सद्गुरु का सदैव स्मरण रखना ।

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