गुरु से कर मेल गँवारा ।
गुरु से कर मेल गंवारा, का सोचत बारम्बारा ।।
जब पार उतरना चहिए, तब केवट से मिल रहिये ।
जब उतरि जाय भवपारा, तब छूटे यह संसारा ।।
जब दरशन को दिल चहिये, तब दर्पण माँजत रहिये ।।
जब दर्पण लागी काई, तब दरस कहाँ से पाई ।।
जब गढ़ पर बजी बधाई, तब देख तमासे जाई ।
जब गढ़ बिच होत सकेला, तब हंसा चलत अकेला ।।
कहैं कबीर देख मन करनी, वाके अंतर बीच कतरनी ।
कतरनि की गाँठि न छूटे, तब पकरि पकरि यम लूटे ।।
भावार्थ - हे मूढ़ मन ! अहंकार में पड़कर क्या बारंबार सोचता है, सद्गुरु की संगति कर, उनके पास बैठ, उनसे मन मिला मिला और उनके चरणों में श्रद्धा कर । किसी को जब नदी के के पार जाना होता है तब वह मल्लाह के पास जा विनयावनत हो उससे मिलता है । इसी प्रकार जिसे संसार-सागर से पार जाना हो, उसे चाहिए कि वह बोध-वैराग्य संपन्न सद्गुरु की शरण में समर्पित हो जाय । जब साधक सद्गुरु के सहारे से मन के भवसागर से पार हो जाता है, तब उसका यह संसार-प्रपंच छूट जाता है ।
जब कोई अपने शरीर का चेहरा देखना चाहता है, तब वह दर्पण को मांजकर उसे चमका देता है । क्योंकि स्वच्छ दर्पण में ही चेहरा साफ दिखता है । यदि दर्पण में मैल लगा हो तो चेहरा नहीं दिख सकता । इसी प्रकार यदि किसी को स्वरूपज्ञान और स्वरूपस्थिति पाने की इच्छा है, तो उसे मन को मल, विक्षेप तथा आवरणों से मुक्त करना चाहिए । निर्मल मन में ही आत्मज्ञान तथा आत्मस्थिति होती है ।
मानो नगर के बीच में के बीच में राजा साहेब का किला है । उसमें किसी मंगल-उत्सव का बाजा बज रहा है । वहां अनेक तमाशे दिखाये जा रहे हैं और नगर के लोग तमाशे देखने के लिए इकट्ठे हो गए हैं । परंतु जब कुछ ही समय बाद तमाशे बटोर लिये गये तब दर्शक यत्र-तत्र अपने घरों को लौट गये । यही दशा जीव की की है । जवानी और प्रौढ़ावस्था में इस शरीर रूपी किला रूपी किला किला पर अनेकों उत्सव होते हैं और गहमागहमी रहती है, परंतु जब बुढ़ापा आया आया तभी से सूना-साना होने लगा और जब मौत आ गयी तब तो सभी तमाशे सिमिट गये और चेतन हंस सब कुछ छोड़कर सब कुछ छोड़कर अकेला चल दिया ।
कबीर साहेब कहते हैं कहते हैं कि अपने मन की करनी करनी को देखो और देखो कि उसमें उसमें क्या-क्या भंगार है । तुम्हारे मन के बीच में तो कपट-कतरनी है । कुतर्क करने वाली, राग-द्वेष की गांठ तुम्हारी नहीं छूटती है, इसलिए वासनाएं तुम्हें पकड़-पकड़कर लूटती हैं ।
विशेष - स्वरूप का अज्ञान तथा मन की मलिनता मलिनता की मलिनता मलिनता जीव के बंधन हैं । सद्गुरु-संतों की सेवा, उपासना और आत्मसाधना से ही ये बंधन कटेंगे । वासना भवसागर है । उससे पार हो जाना संसार-सागर से पार हो जाना है । यह सब सच्चे सद्गुरु तथा संतों का आधार लिए बिना नहीं होगा ।
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Bahut khub🙏
ReplyDeleteThank you so much
ReplyDeleteBohot hi Sundar
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