चक्की चलती देख के, दिया कबीरा रोय l



चक्की चलती देख के, मेरे नैनन आया रोय l
दुइ पाट भीतर आय के, साबुत गया ना कोय ll

कबीर देव की यह साखी बहुत प्रसिद्ध है l चक्की दो पाटों की होती है l उसमें अन्न के दाने पीसते हैं l यह संसार मानो विशाल चक्की है l यह निरंतर चलती है l जहां तक दृश्यमान संसार है निरन्तर गतिशील है l इसमें रहने वाले प्राणियों के शरीर तथा सारे पदार्थ अनवरत पीसते रहते हैं l द्रव्य और गति मानो ये दो पाट हैं l इनमें सारा संसार पीसा जा रहा है l जितने भौतिक द्रव्य हैं सबमें गति है और गति जहाँ तक है भौतिक द्रव्य है l द्रव्य और गति यही संसार चक्की के दो पाट हैं जिसमें अनंत विश्व निरंतर पीसा जा रहा है l यहाँ सारे पदार्थ परिवर्तनशील हैं तथा सारे प्राणी मौत के आते ही क्षण-मात्र में इस दुनिया से उठ जाते हैं l ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, व्यास, वसिष्ठ, ईशा, मूसा, मुहम्मद, गोरख, कबीर, दयानन्द, विवेकानन्द बड़ी-बड़ी हस्तियां चली गयीं l फरक इतना ही है कि ये सब अपनी यश-काया से अमर हैं l जिन्होंने अपने मन, वाणी तथा काया को जीतकर संसार से अनासक्ति प्राप्त कर ली वे अपने आध्यात्मिक स्वरुप में स्थिर होकर अमर हो गये l अन्यथा बड़े-बड़े राजे-महराजे कीड़े-मकोड़े के समान आते-जाते रहते हैं l

   अथवा तन और मन दो पाटों की चक्की है l इसमें संसार के सारे जीव पिसते हैं l शरीर के निर्वाह-धन्धों, रोग-व्याधि तथा नाना दैहिक उपद्रव एवं मन के राग-द्वेष, चिंता-विकलता, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि में सभी जीव पीसे जा रहे हैं l अथवा जन्म-मरण के दो पाटों की चक्की में सब जीव पीसे जा रहे हैं l ये जीव जन्म-मरण के चक्कर में, गर्भवास, बाल्यकालिक, जवानी के प्रमादजनित, बुढ़ापा के विवशताजनित तथा जीवन के नाना उपद्रवों में निरंतर पिसते हैं l अथवा खानी तथा वाणी इन दो पाटों की चक्की में सब जीव निरंतर पीसे जा रहे हैं l खानी है मोटी माया और वाणी है झीनी माया l प्राणी-पदार्थों के लोभ-मोह में जीवन का उलझे रहना खानी जाल के बंधन हैं तथा अपने चेतनस्वरूप से अलग देवी-देवता, ईश्वर-ब्रह्मा, गति-मुक्ति, स्वर्ग तथा लोक-लोकान्तरों की कल्पना करना वाणी जाल के बंधन हैं l इस प्रकार खानी और वाणी जाल के इन दो पाटों में संसार के सारे लोग पीसे जा रहे हैं l

           सबका सार अर्थ यह है कि राग और द्वेष इन दो पाटों की चक्की में सारे जीव निरंतर पिस रहे हैं l सद्गुरु कहते हैं कि जीवों की यह दुखद दशा देखकर मेरे नेत्रों में आंसू आ गये, मेरा दिल रो दिया l संसारी आदमी अपने पत्नी-बच्चों के दुखों को देखकर रोते हैं, या वे जिसे अपना माने रखते हैं उन्हीं के दुखों से रोते हैं, परन्तु जो कहीं किसी में ममता नहिं करता, वह सब में ममता रखता है l ऐसे पुरुष का हृदय अत्यंत शुद्ध होता है, और वही संसार के सारे लोगों के दुखों को देखकर रोता है l कबीर साहेब का दिल विशाल था l वे संसार के सारे लोगों के दुखों को देखकर रोते हैं l

  जो चीज बनती है वह बिगड़ती है l शरीर निर्मित हुआ है तो नष्ट होगा ही l सारे भौतिक पदार्थों का निर्माण विनाश के मुख में है l इन्हें रोके रखना एवं स्थिर रखना किसी के वश की बात नहीं है l इन्हें रोके रखने की कल्पना कोई फायदेमंद भी नहीं है l जो जीव के लिए कल्याणकर है और जिसे वह कर सकता है वह है राग-द्वेष का त्याग l जिसके मन के राग-द्वेष की चक्की बन्द हो जाती है उसके मन का पिसना बन्द हो जाता है l राग-द्वेष से मुक्त हुआ मनुष्य परम शांति का सागर हो जाता है l जिसे किसी से राग नहीं और किसी से द्वेष नहीं है उसके सारे द्वन्द्व, सारे झगड़े, सारे उपद्रव समाप्त हो जाते हैं l उसकी दृष्टि में मित्र तो मित्र है ही, शत्रु भी मित्र ही है l कोई अपने अज्ञानवश उससे शत्रुता भले कर ले, परन्तु वह उससे भी शत्रुभाव नहीं रख सकता l वह तो मलिन मन वालों पर दया करता है l वह समझता है कि ये अपने अज्ञानवश दीन हैं l ये अपने मनोमालिन्यतावश अपना ही अहित कर रहे हैं l ये दया-क्षमा के पात्र हैं l जिनकी राग-द्वेष की चक्की बन्द हो गयी, उनका संसार-सागर मानो सूख गया l वे सब समय निर्भय, निर्द्वंद्व, मुक्त एवं कृतकृत्य रूप होते हैं l

                                                  (बीजक साखी – 129 )


https://www.facebook.com/SansarKeMahapurush

Comments

Popular posts from this blog

सब दिन होत न एक समाना ।

या विधि मन को लगावै, मन को लगावे प्रभु पावै ll

हमन है इश्क मस्ताना l