धर्म क्या है ?



हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी - सभी कहते हैं हमारा धर्म बड़ा तथा दूसरे का धर्म छोटा है; परन्तु ऐसा कहने वाले धर्म के तत्व को नहीं जानते । धर्म का मूल तत्व हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि में भिन्न-भिन्न नहीं हो सकता; न तो दाढ़ी, चोटी, खतना-यज्ञोपवीत, माला-चन्दन ही धर्म हैं । ये तो साम्प्रदायिक चिन्ह मात्र हैं ।
धर्म कहते हैं स्वभाव को । पृथ्वी की कठोरता उसका स्वभाव या धर्म है, जल की शीतलता, अग्नि की उष्णता, वायु की कोमलता उनके स्वभाव एवं धर्म है । इसी प्रकार जीव का, चेतन का एवं आत्मा का स्वभाव तथा धर्म ज्ञान है । अतएव ज्ञान के अनुसार, अन्तरात्मा की आवाज के अनुसार चलना ही धर्म है ।
कितने लोग कहते हैं कि धर्म-अधर्म एक मान्यता मात्र है; परन्तु ऐसी बात नहीं है । यह ठीक है कि कुछ लोगों द्वारा अपनी कल्पना या क्रिया-पद्धति को धर्म कहा गया है, वह अवश्य मान्यता मात्र है; परन्तु धर्म का वास्तविक स्वरूप होता है ।
कोई हमारी बहन-बेटी पर कुदृष्टि करे, हमारे धन को छीने, हमारे अंग में कांटे चुभोये, हमें गाली दे, हमारी निन्दा, ईर्ष्या करे, झूठ बोलकर हमें धोखा दे - यह सब हमें बुरा लगेगा, दुखपूर्ण प्रतीत होगा । यही सब काम यदि हम दूसरे के प्रति करते हैं तो उसे भी दुख होगा । अतएव अपने अनुभव एवं ज्ञान के आधार पर हम जान लिये कि उक्त क्रियाएँ मनुष्य को या प्राणी को दुखदायी हैं, बस यही अधर्म है, पाप है । यह हम दूसरे के साथ न करें ।
हम भूखे-प्यासे हैं किसी ने हमें जल-भोजन दे दिया, हम रास्ता भूल गये हैं किसी ने हमें रास्ता बता दिया, हम रोग से व्यथित हैं किसी ने हमारी चिकित्सा कर दी, हम अज्ञान से पीड़ित हैं किसी ने हमें ज्ञान दे दिया, किसी ने हमारे साथ सहानुभूति, प्यार और मानवता का बरताव किया - ये सब बातें हमें बहुत अच्छी लगेंगी, यही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए; यही धर्म है ।
क्षमा, दया, शील, सत्य, पवित्रता, धैर्य, करुणा, प्रेम - ये ऐसे सदगुण हैं कि इनको धारण करने वाला स्वयं तो सुखी होते ही हैं अपने सम्पर्क मात्र से दूसरे को भी सुखी कर देते हैं । यही सब धर्म का वास्तविक स्वरूप है । यह हिन्दू-मुसलमान, ईसाई-यहूदी तथा ब्राह्मण-शूद्र का धर्म नहीं, अपितु #मानवधर्म है और यही वास्तविक धर्म है । इसी के लिए महाप्राण #संत_कबीर तथा #संसार_के_सभी_महापुरुषों का आदेश है ।

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