कबीर अमृतवाणी ।
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ।।
सब लोग वेष पहनकर शरीर को योगी बनाते हैं, मन को कोई बिरला ही योगी बनाता है, यदि मन योगी हो जाय, तो सहज ही कल्याण की सिद्धि हो जाय ।।
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ।।
गले-हाथ इत्यादि में चार मालाएं पहनकर साधु-वेष धर लिये तो क्या हो गया, बाहर तो उत्तम वेष बना लिया और भीतर भंगार भरी है ।।
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल ।।
सिंह का वेष पहनकर जो भेड़ की चाल चलता तथा सियार की बोली बोलता है, उसे कुत्ता अवश्य फाड़ खायेगा ।।
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि अंग ।।
जो बगुला के समान कपट शरीर वाला तन (वेष) का उजला, तथा मन का मैला है, उससे अच्छा तो कौआ है, जो तन-मन दोनों से काला है (किसी को छलता तो नहीं) ।।
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान ।।
केवल उत्तम साधु-वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो । बिना कसौटी के सोने की परख नहीं होती ।
कवि तो कोटिक कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट ।
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ।।
कविता करने वाले तो करोड़ों-करोड़ों हैं, और सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेष-धारी भी करोड़ों हैं, परन्तु ऐ जिज्ञासु ! जिसने अपने मन को मूड़ लिया है, ऐसा विवेकी सद्गुरु देखकर तू उनकी शरण ले ।।
#कबीर_अमृतवाणी ।
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