अवतारवाद ।
अवतारवाद मनुष्य के मन में हीनभावना उत्पन्न करता है । यहां तक देश और धर्म संकट आने पर अवतारवादी उसके निवारण के लिए स्वयं यत्न नहीं करता । वह सोचता है हम तुच्छ जीवों में क्या बल है जो कुछ कर सकें, जब अधिक संकट या पाप बढ़ जायेगा, तब ईश्वर अवतार लेकर स्वयं सब काम कर देगा । प्रकट है जब विधर्मियों द्वारा सोमनाथ के मन्दिर को लुट जाने की संभावना हुई, तब उसके पुजारियों ने अन्य कोई यत्न नहीं किया और भगवान के भरोसे वे हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रह गये । उसका परिणाम हुआ कि करोड़ों की सम्पत्ति लुट गयी, मन्दिर ध्वस्त किया गया और शिवलिंगी तोड़ी गयी ।
मनुष्य तब तक उन्नति नहीं कर सकता, जब तक यह न समझ ले कि मनुष्य से बड़ा कोई नहीं । किसी ईश्वर, दैव अथवा अवतार के भरोसे सोते रहने का व्यसन बहुत बड़ा अनर्थ उत्पन्न करता है । ईश्वर, दैव और अवतार की कल्पना मनुष्य के मस्तिष्क के उस अन्धकारमय प्रदेश से होती है, जिसमें वह अपनी दुर्बलताओं को संजोकर अवकाश की सांस लेना चाहता है ।
वास्तव में यह आत्मा ही जब महात्मा हो जाता है, तब परमात्मा हो जाता है । काम, क्रोध एवं राग-द्वेष पर सर्वथा विजयी पुरुष ही 'ईश्वर, परमात्मा, दैव या ब्रह्मा है ।' श्रीमद्भागवत भी कहता है
दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्ट: कृपणो यो जितेन्द्रिय: ।
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसंगो विपर्यय: ।। (11/19/44)
"जिसके चित्त में असन्तोष है वही दरिद्र है, जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही कृपण है । समर्थ, स्वतंत्र और ईश्वर वह है जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त नहीं है । इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा असमर्थ है।"
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