मनुष्य के गुणों की विशेषता है ।

मानुष तेरा गुण बड़ा, माँसु न आवै काज l
हाड़ न होते आभरण, त्वचा न बाजन बाज ll



हे मनुष्य ! तेरे सद्गुण ही श्रेष्ठ हैं, अन्यथा तेरा शरीर व्यर्थ है l न तेरा मांस किसी के काम आता है, न तेरी हड्डी के आभूषण बनते हैं और न तेरे चाम के बाजे बनकर बजते हैं ll

        मनुष्य की विशेषता उसके उत्तम विचारों एवं  सदगुणों में है l यदि उसने मानवीय विचार एवं मानवीय गुणों का अपने जीवन में विकास नहीं किया तो वह पशुओं से खराब है l पशुओं के चाम, हड्डी, मांस, बाल आदि सभी अंग दूसरे के काम आ जाते हैं l पशु अपने जीवनकाल में तथा मर जाने पर भी दूसरों की सेवा में लग जाते हैं l पशु अपने स्वाभाविक कर्म को छोड़कर कोई दुष्कर्म नहीं करते l इसलिए उनके जीवन में नये कर्म बंधन नहीं बनते l पशु किसी की फसल को यदि चरता है तो पेट भर जाने के बाद चरना छोड़ देता है l परन्तु मनुष्य का पेट भरा रहने पर भी वह दुसरे के घर में चोरी करता है, जेब काटता है, मिलावटबाजी, घूसखोरी, चोरबाजारी, जमाखोरी, धोखेबाजी आदि सभी अपराध करता है l

       जिन पशु-पक्षियों के जो स्वाभाविक भोजन हैं वे उन्हें ही ग्रहण करते हैं l जो पशु-पक्षी मांसाहारी होते हैं, वे ही मांस खाते हैं, अन्य जो शाकाहारी होते हैं वे प्राय: मांस नहीं खाते l मनुष्य ऐसा जंतु है जो शाकाहारी होकर भी मांस खाता है l वह बैल, भैंसा, सूअर, मछली, मेढ़क, बन्दर, सांप, बकरे, भेड़े, मुरगे आदि सब चट कर जाता है l और इतना ही नहीं, शराब, गांजा, भांग, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, आदि नाना प्रकार के नशाओं का सेवन करते है l मांसाहारी तो कह सकते हैं कि हम प्रोटीन खाते हैं, परन्तु नशेड़ी क्या कहेंगे ! वे तो समस्त तम्बाकुओं में निकोटिन नाम का जहर खाते हैं l मनुष्य का आहार जितना खराब है उतना किसी जन्तु का नहीं है l अन्य प्राणियों के आहार में स्वाभाविकता एवं संयम होने से वे ज्यादा रोगी नहीं होते, परन्तु मनुष्य अपने आहार बिगाड़कर रोगी बना रहता है l

                          हर प्रकार के पशु-पक्षियों में उनकी खानियों के अनुसार प्राय: अपने प्राकृतिक नियम होते हैं, उन्हीं के अनुसार वे वार्षिक, छमाही, तिमाही आदि यौन सम्बन्ध करते हैं l अधम पशु कुत्ते भी केवल कार्तिक में कामोन्माद में होते हैं l परन्तु मनुष्य ऐसा जन्तु है कि वह यदि विवेक से काम नहीं लेता तो बारहों महीनें पागल बना रहता है l कामोन्माद में नाना रोगों से ग्रसित होना यह मानव में ही है, मानवेतर प्राणी ऐसा नहीं होते l मानवेतर प्राणियों में प्राकृतिक संयम होता है l

                          मनुष्य जितना मोहग्रसित है उतना कोई अन्य प्राणी नहीं है l गाय अपने नवजात बछड़े के लिए ज्यादा स्नेह रखती है, परन्तु थोड़े दिनों में वे उसे भूल जाती है l परन्तु मानव मरते तक बाल-बच्चे एवं कुटुम्बियों के मोहपाश में बंधा घसीटता रहता है l वह परिवार की रक्षा करे यह तो ठीक है, परन्तु वह तो रक्षा कम, मोह-वैर ज्यादा करता है, जो उसके लिए भवबन्धन है l

    पशु, पक्षी और कीड़े तक उतने भयग्रसित नहीं होते जितना मनुष्य भयभीत होता है l अपमान-भय, रोग-भय, रोजी के छीन जाने का भय, शत्रु-भय, मृत्यु-भय, यहां तक की मिथ्या भूत, प्रेत, टोनही, ग्रह, शकुन, अपशकुन आदि के भय उसे सताते रहते हैं l श्मशान में कब्रों के अन्दर भी चींटी, सांप, बिच्छू, छिपकली, चूहे आदि जानवर रहते हैं, श्मशान में बैल, गाय, पक्षी या अन्य मानवेतर प्राणी रात में भी आनन्द से सोते से सोते हैं l परन्तु मनुष्य रात में यदि श्मशान पहुँच जाये तो उसे भूत-प्रेत दबोच लेते हैं l अतएव भूत, प्रेत, टोनही आदि का रोग केवल मानव को ही लगता है, अन्य प्राणियों को नहीं l

इस संसार में सबसे अधिक चिंताग्रस्त, रोगी, असंयत, कामी, क्रोधी, छली, दुर्व्यसनी, धोखेबाज, भयभीत एवं दुखी केवल मनुष्य है l मनुष्य के अलावा प्राणी इतने दुखी, दुर्व्यसनी एवं परेशान नहीं हैं l

    परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि सिंह आदि हिंसक एवं माँसाहारी जानवर शिक्षा देने से दयालु तथा शाकाहारी नहीं हो सकते l कुत्ते भले ही कार्तिक में कामोन्मादी हों तथा अन्य महीने में स्वाभाविक संयत हों, परन्तु वे शिक्षा पाकर आजीवन ब्रहमचारी नहीं हो सकते l परन्तु मनुष्य जीवनभर के लिए शाकाहारी तथा ब्रह्मचारी हो जाते हैं l मनुष्य इसलिए ज्यादा बिगड़ा एवं दुखी है, क्योंकि उसमें अधिक संभावनाएं हैं l जब वह विचार करके अपने मानवीय गुणों का विकास करता है तब वही परमपद की गद्दी पर भी आसीन हो सकता है l यह संभावना मानवेतर प्राणियों में नहीं है l

        मनुष्य के मन एवं वाणी की प्रबल शक्ति है l उसमे विचारों का महान बल है l उसमें अनन्त संभावनाएं हैं l इसलिए जब वह अच्छी समझ से काम नहीं लेता, तब पशुओं से भी नीची दशा में पहुंच जाता है, और यदि वह अपने विचारों का उपयोग करता है तो महान हो जाता है l विचारहीन-मानव पशु से भी पतित है; परन्तु यदि उसने अपने विचार-शक्ति का सम्यक उपयोग किया है तो उसके समान कोई देवता या परमात्मा नहीं है l अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह अपने निकम्मे शरीर का अहंकार छोड़कर सुन्दर विचारों का उपयोग करे और दया, शील, क्षमा, सत्य, धैर्य, अहिंसा, करुणा, विवेक, वैराग्य, भक्ति आदि सद्गुणों का संवर्धन करे l मनुष्य की विशेषता उसके मानवीय विचारों एवं सद्गुणों में ही है l

                  (बीजक व्याख्या - साखी-199)
व्याख्याकार – सद्गुरु श्री अभिलाष साहेब जी


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