"प्रेम ना बाड़ी उपजै, प्रेम ना हाट बिकाय ।

"प्रेम ना बाड़ी उपजै, प्रेम ना हाट बिकाय । राजा परजा जेहि रुचै, शीश देय लै जाय।।" प्रेम ना घर की बाड़ी या खेत में होता है और ना ही किसी हाट-बाजार में बिकता है। राजा हो या प्रजा जिसे भी इसे पाने की इच्छा या चाहना हो वह शीश देकर अर्थात् झुक कर या विनम्रता को जीवन में धारण करके पा सकता है । कबीर साहेब मस्तमौला फक्कड़ संत शिरोमणि हैं। अपने अनुभव और आँखों देखी बात कहते हैं वो भी बिना लाग लपेट के जस का तस एकदम खरा खरा । प्रेम तो उनका चोलना है जिसे पहन कर वो नाचते हैं। अर्थात प्रेम से कभी अलग नहीं होते। प्रेम का रहस्य बताते हुए कहते हैं - प्रेम को संकीर्ण न रखें। प्रेम को किसी बाड़े में उपजाया नहीं जा सकता अर्थात प्रेम को किसी एक विषय वस्तु में नहीं बाँधा जा सकता। प्रेम तो निश्छल निर्मल और शुद्ध है। प्रेम में कुछ पाना नहीं है उलटा सबकुछ खो देना ही प्रेम है। प्रेम हाट बाज़ार में नहीं बिकता क्योंकि उसकी कीमत अनमोल है। आजतक इसे खरीदने वाला कोई नहीं मिला। लेकिन जिस किसी को इसे पाने या अनुभव करने की रुचि है फिर चाहे राजा या प्रजा जो कोई हो इसकी कीमत चुका कर ले जाए ...